Veer Savarkar In Hindi वीर सावरकर की जीवनी – भाग 2

Veer Savarkar की जीवनी पढ़ कर आप सभी को आन्नद आ रहा होगा Veer Savarkar जी के त्याग का आपको पता चल रहा होगा Veer Savarkar जी ने इस भारत भूमि के लिए कितना कुछ किया आप पहले भाग में Veer Savarkar जी के बचपन के बारे में पढ़ा अब हम इस भाग दो में Veer Savarkar जी की विदेश यात्रा के बारे में पढेंगे ।

अप इस भाग में जान पाएंगे की Veer Savarkar जी ने विदेश में जाकर भारत की आजादी के लिए कितना अधिक कार्य किया दोस्तों लेख लिखने में काफी समय और महनत लगती है आप इस लेख को ज्यादा से ज्यादा व्येक्तियो के सामने साझा कीजियेगा ।

ताकि अधिक से अधिक व्येक्ती खासतोर से युवा Veer Savarkar जी के बलिदान को सही सही जान पायें ।

Veer Savarkar जी की विदेश यात्रा

मई 1906 में 22 वर्ष की आयु में Veer Savarkar ने लंदन की ओर प्रस्थान किया नासिक की जनता ने इन्हें सार्वजनिक विदाई दी नासिक के निवासियों ने दुखी होकर कहा ” हम चाहते हैं कि आप शीघ्र ही लौट कर हमारे पास आ कर रहे” यह किसको पता था कि अंडमान की कालकोठरी इस प्यारे वीर को बड़ी देर तक दर्शन ना करने देगी।

Veer Savarkar In Hindi वीर सावरकर की जीवनी - भाग 2
यह तस्वीर विकिपीडिया से ली गई है

नासिक निवासियों से विदाई ले कर जहाज पर सवार हो गए जहाज में जाते समय भी यह भारतीय विद्यार्थियों में अपने विचारों का प्रचार करते रहे। एक उत्तर भारत का विधार्थी समुद्रीय रोग के कारण घबरा गया वह मार्ग से लौट जाना चाहता था, उसे प्रेम से समझा कर शांत  किया वह उत्तर का प्रसिद्ध बैरिस्टर बना उसमें देशभक्ति के भाव भरते रहे इसी प्रकार अपने विचारों का प्रचार करते हुए लंदन पहुंचे।

ब्रिटिश राज्य की राजधानी लंदन

इंग्लैंड पहुंचने पर श्यामजी कृष्ण वर्मा ने वीर सावरकर का स्वागत किया। पंडित श्यामजी उन दिनों होम रूल आंदोलन चला रहे थे। जिसको चलाने से राष्ट्रीय महासभा (कांग्रेस) के मुख्य नेता भी उस समय डरते थे। परंतु सावरकर ने लंदन पहुंच कर एक ही वर्ष में इस तेजी से वातावरण बदला की होमरूल आंदोलन भी एक नरम आंदोलन प्रतीत होने लगा।

वहां पर “फ्री इंडिया” नाम की संस्था खोली गई । प्रति सप्ताह सभाएं होती थी उसमें सावरकर का इटली फ्रांस अमेरिका आदि देशों की क्रांति पर ओजस्वी भाषण होता था। यह सभाएं खुले रूप में होती थी इनमें प्रत्येक भारतीय सम्मिलित हो सकता था। जो युवक कुछ क्रियात्मक रूप से क्रांति में भाग लेने को उद्धत होते थे उनकी परीक्षा करके “अभिनव भारत” संस्था में उन्हें ले लिया जाता था।

इस प्रकार कैंब्रिज ऑक्सफोर्ड मान चेस्टर आदि शिक्षालयों के भारतीय विद्यार्थी बड़ी शीघ्रता से क्रांतिकारी सिद्धांतों के भक्त बना लिए गए।

पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा ने अपने पत्र “इंडियन साइकालोजिस्ट बोम्बे” और रूस की गुप्त संस्थाओं पर एक लेख लिखकर बड़ी वीरता से खुले रुप में क्रांतिकारी संस्था में सम्मिलित होने की घोषणा की। यह वीर महर्षि दयानंद का सच्चा शिष्य था।

इस वीर का विश्वास कि हमारा राष्ट्र तब तक पूर्ण स्वतंत्र नहीं हो सकता जब तक कि भारतीयों के पास ब्रिटिश सरकार से अथक लड़ाई के प्रचुर मात्रा में शस्त्र नहीं आ जाते। यह वीर श्याम जी भारतीय नेताओं में से उस प्रथम श्रेणी के नेता थे जिन्होंने राजनीतिक उद्देश्य पूर्ण स्वतंत्रता से घोषित किया था।

इस घोषणा के पश्चात श्याम जी ने होमरूल आंदोलन को बंद कर दिया और श्याम जी लंदन का इंडिया हाउस अपने प्रिय शिष्य सावरकर को सौंपकर पैरिस चले गए। श्याम जी सावरकर से अपने पुत्र समान प्रेम करते थे। वीर सावरकर भी उनका पितातुल्य अथवा गुरु के समान आदर करते थे।

इंडिया हाउस सावरकर के हाथ में आने के पश्चात “अभिनव भारत” इस संस्था ने वह आश्चर्यजनक कार्य किए जिनका संपूर्ण इतिहास आज तक जनता के सम्मुख किसी ने प्रकट नहीं किया। उस समय की भारत की राजनीतिक परिस्थिति में वर्णन करना कठिन था। पीछे खोज का प्रयास होना चाहिए था उतना नहीं किया गया।

उस समय इंग्लैंड में शिक्षा पाने वाले अनुपम प्रगतिशील भारतीय विद्यार्थी अपना राजनीतिक जीवन इसी संस्था द्वारा चलाते थे। लाला हरदयाल जी आई सी एस परीक्षा पास करने इंग्लैंड गए थे।

इसी इंडिया हाउस के संपर्क से सरकारी विश्वविद्यालय से मिलने वाली छात्रवृत्ति का परित्याग किया और भारतीय स्वतंत्रता के लिए जीवन अर्पण करने की प्रतिज्ञा की। जब तक वे जीवित रहे अपने देशानुराग के अपराध में अपनी प्रिय मातृभूमि से निर्वासित रहे। अंतिम समय तक अपने संबंधियों का मुख तक ना देख सके और ना ही मातृभूमि के दर्शन कर सकें।

स्वतंत्रता प्रेम को अपने दिल के पहलू में दबाए हुए दूर अमेरिका में प्राण त्याग दिए। अपने जीवन काल में उन्होंने कभी गदर पार्टी द्वारा कभी अमेरिका में भारतीय विद्यार्थियों में प्रचार कर तथा कभी जर्मनी और टर्की के उच्च अधिकारियों से मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीयों को शस्त्र देने की प्रेरणा कर भारत की मुक्ति के लिए अथक परिश्रम किया।

यह हरदयाल जी भी इसी संस्था के सदस्य थे अथवा यों कहिए कि यह भी श्याम जी के भारतीय भवन में ही ढाले गए थे। इनके अतिरिक्त सरोजनी नायडू के भाई मिस्टर चट्टोपाध्याय जी जो अपनी इस बहन से संसार में कम विख्यात हैं परंतु जिनका देश प्रेम कष्ट सहन और त्याग अपनी बहन नायडू से कहीं बढ़कर है और जो अपनी देशभक्ति के कारण निर्वासित होकर रूस में अपने दिन काटते रहे।

यह सावरकर के ही साथी थे इसी प्रकार वी बी एस आयंगर जिनका नाम देश के लिए कष्ट उठाने के कारण मद्रास के घर घर में श्रद्धा से लिया जाता है। यह भी वीर विनायक के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करते रहे। इनके प्रयत्नों से अभिनव भारत भारतीय राजनीति में ऐसी शक्तिशाली संस्था बन गई की अंग्रेजी सरकार वर्षों तक इसे कुचलने में व्यस्त रहे एक दिन भारतीय भवन में एक सभा हो रही थी, नवयुवक कुछ करने के लिए उतावले हो रहे थे धन इकट्ठा किया गया एक मराठा युवक, एक बंगाली और एक मद्रासी यह तीनों बम बनाना सीखने के लिए सावरकर की प्रेरणा पर पेरिस गए।

इससे पूर्व भी भारतीय क्रांतिकारियों ने बम बनाना सीखने का यत्न किया किंतु अब तक शारीरिक तथा आर्थिक हानि ही उठाई सफलता नहीं मिली थी। रूसी प्रोफेसरों ने इस बार भी धोखा देकर बहुत सा धन ठग लिया किंतु अंत में एक सच्चा व्यक्ति रूसी क्रांतिकारी जो निर्वासित था जिसकी खोज में रूसी सरकार परेशान थी मिल गया।

इसने बम बनाने व प्रयोग का सहज उपाय इन भारतीय क्रांतिकारियों को सिखाया। उसने 50 पृष्ठ की एक पुस्तक दी जिसमें सब प्रकार के बम बनाने की विधियां लिखी थी। और इस सब के बदले उसने कुछ भी ना लिया।

यही पुस्तक सावरकर और उसके साथियों ने “इंडिया हाउस” मैं साइक्लो टाइप पर छाप कर गुप्त रूप से वितरित कि आगे चलकर इस की कॉपियां कोलकाता इलाहाबाद लाहौर और नासिक तक में खोज कर निकाली गई। इस पुस्तक के छापने के साथ-साथ अभिनव भारत में बम बनाने की विधि भी सिखाई जाती थी। स्वयं वीर सावरकर यह शिक्षा दिया करते थे।

वीर विनायक भारतीय विद्यार्थियों को फ्री इंडिया सोसायटी के भवन में इतिहास, राजनीति और अर्थशास्त्र पर सार्वजनिक व्याख्यान भी देते थे। क्रांतिकारी अपने प्रथम बम का प्रयोग इंग्लैंड में ही करना चाहते थे। ऐसा करने से सावरकर ने उन्हें रोक दिया।

क्योंकि भारत तक यह कला पहुंचने से पूर्व ही सब कार्य बिगड़ जाता कुछ शिक्षक इस बम बनाने की कला को सिखाने के लिए भारत भेजे गए। इन्हीं बमों का फिर भारत में अनेक स्थानों पर प्रयोग किया गया इस प्रकार इस समय ” भारतीय भवन” आश्चर्य जनक कार्यों का केंद्र बना हुआ था। प्रतिदिन सहस्त्रों पोस्टर और पंपलेट छापे जाते थे, उन्हें भारत के विभिन्न भागों में बांटने के लिए भेजा जाता था।

इन सब कार्यों में सावरकर का हाथ सबसे अधिक रहता था यह सब कार्य करते हुए वे समय निकालकर लिखते भी थे अतः उन्होंने जोजफ मोजिनी की आत्मकथा का मराठी अनुवाद किया। यह कार्य तो 4 मास में ही करके भारत भेज दिया। नासिक में यह पुस्तक छपी जनता ने इसे बहुत अपनाया इसके विषय ने अपना रिकॉर्ड स्थापित कर दिया धर्म ग्रंथों के समान इसका आदर हुआ।

पालकी में रखकर इसकी कई स्थानों पर शोभायात्रा निकाली गई विद्यार्थियों ने इसे बड़े चाव से पढ़ा समाचार पत्रों ने इस पर लेख लिखें । इसी कारण सरकार को यह खटकी और पुस्तक जप्त कर ली गई। दूसरा ग्रंथ 1857 का स्वतंत्रता स्मर था। यह ग्रंथ पुराने सरकारी कागजों के आधार पर लिखा जा रहा था इसकी भारतीय भवन में सावरकर जी कथा भी करते थे अभी लेखन पूर्ण भी नहीं हुआ था कि सरकार की क्रूर दृष्टि इस पर पड़ी और यह पूर्ण होने और छपने से पूर्व जब कर ली गई।

यह संसार का प्रथम ग्रंथ था जो उन्होंने और छपने से पूर्व ही जप्त कर लिया गया। कई अंग्रेजी पत्रों में इस घृणित कार्य की निंदा की गई यह ग्रंथ क्रांतिकारी ढंग से ही गुप्त रूप से छापा गया और बड़े उपायों से इसकी सैकड़ों प्रतियां भारत में पहुंचाई गई घरों और हॉस्टलों में इस पुस्तक को दूसरी पुस्तकों में भारतीय लोग छुपा कर रखते थे इसकी एक पुस्तक सिकंदर हयात खान जो अभिनव भारत के सदस्य थे उनको भेजी गई।

यह पुस्तक इतनी बढ़िया थी कि क्रांतिकारियों के कट्टर विरोधी वैलेंटाइन शिरोल तक ने इसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी। ऐतिहासिक खोज की दृष्टि से पुस्तक का बड़ा महत्व है Veer Savarkar ने इस ग्रंथ में यह सिद्ध किया था कि 57 का युद्ध सिपाही विद्रोह नहीं किंतु हमारा प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। इस पुस्तक की खोज में अनेकों उत्साही युवक रहते थे यहां तक कि इसकी एक प्रति दक्षिण अमेरिका में ₹130 में बिकती हुई एक सीख ने देखी थी। पुस्तक से प्राप्त धन सब सार्वजनिक कार्यों में व्यय किया जाता था इस पुस्तक का छापने का इतिहास निम्न प्रकार से है।

1857 का स्वतंत्रता स्मर पुस्तक का इतिहास

जिस समय यह ग्रंथ वीर सावरकर ने लिखा उनकी आयु केवल 23 वर्ष की थी यह ग्रंथ सावरकर जी ने इंग्लैंड में श्याम जी के भारतीय भवन में ही लिखा था मूल ग्रंथ मराठी भाषा में लिखा गया स्वर्गीय लोकमान्य तिलक जी ने “इतिहास छात्रवृति” के लिए सावरकर के विषय में

क्रांतिकारियों के भीष्म स्वयं पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा को अनुरोध कर भारतीय राष्ट्र का सदा के लिए उपकार किया इससे हर कोई सहमत होगा जो इस ग्रंथ को पढ़ेगा क्योंकि यदि श्यामा जी द्वारा दी हुई छात्रवृत्ति Veer Savarkar को ना मिलती तो वे ना तो इंग्लैंड जाकर भारतीय भवन में निवास करते, ना उनका पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा जी से संबंध होता और फिर ना ही यह ग्रंथ लिखा जाता।

ग्रंथ की छपाई में कठिनाई

यह ग्रंथ मराठी भाषा में ही पूर्ण किया गया था सावरकर जी इसका अनुवाद अंग्रेजी में करके फ्री इंडिया सोसायटी की साप्ताहिक बैठक में अपने भाषणों में सुनाया करते थे खुफिया पुलिस ने इस ग्रंथ के विषय में अपना मत सरकार को बताया कि यह ग्रंथ राजद्रोही अत्यंत विद्रोह जनक क्रांतिकारी साहित्य है। थोड़े दिनों में मूल मराठी ग्रन्थ के 2 अध्याय लुप्त हुए प्रतीत होने लगे।

पीछे पता लगा कि खुफिया पुलिस ने उन्हें चुराकर स्कॉटलैंड यार्ड में पहुंचा दिया था फिर क्रांतिकारियों ने इस ग्रंथ की पांडुलिपि बहुत ही चतुराई से सब की दृष्टि से बचाकर प्रकाशनार्थ भारत में सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दी। किंतु सरकार के भय के कारण महाराष्ट्र की बड़ी से बड़ी मुद्रण संस्थाओं ने इसे छापने का साहस नहीं किया।

निदान अभिनव भारत के एक सदस्य ने अपने ही मुद्रणालय मैं छापने का बीड़ा उठाया किंतु भारत की खुफिया पुलिस को ज्ञात होने से उन्होंने महाराष्ट्र के सभी मुद्रण संस्थाओं पर एक ही समय में अकस्मात छापा मारकर तलाशी ली गई किंतु यह सूचना सौभाग्य से एक पुलिस अफसर द्वारा ही इस साहसी सदस्य को मिल गई और पुलिस के वहां पहुंचने से पूर्व ही पांडुलिपि पैरिस भेज दी गई, वहां से लेखक के पास लंदन पहुंच गई।

फिर जर्मनी में इसे छपवाने का यतन किया गया क्योंकि वहां संस्कृत साहित्य छपता था। वहां का देवनागरी टाइप सर्वथा रद्दी था और जर्मनी टाइपराइटर मराठी भाषा में सर्वथा अनभिज्ञ होने से और धन व समय प्राप्येव्य होने के कारण यह विचार छोड़ दिया गया ।

फिर आई सी एस में पढ़ने वाले विद्यार्थियों ने इसका अनुवाद अंग्रेजी में किया यह विद्यार्थी अभिनव भारत के सदस्य थे। वहां की सी आई डी के चौकने होने से यह पुस्तक इंग्लैंड में नहीं छप सकी। फिर पैरिस भेज दी गई । फ्रांसीसी सरकार उस समय अंग्रेजो की भीगी बिल्ली थी, वहां भी यह नहीं छप सकी।

सरकार ने इसे छपने से पूर्व जप्त कर लिया था वीर सावरकर ने इस विषय में समाचार पत्रों में अंग्रेजी सरकार की आलोचना की अन्य पत्रकारों ने भी अंग्रेजी सरकार की खूब निंदा की क्रांतिकारियों ने इसकी सैकड़ों पुस्तकें छिपाकर भारतवर्ष में सुरक्षित पहुंचादी इस पुस्तक के प्रथम संस्करण की प्रतियां अभिनव भारत ने बिना मूल्य ही वितरित की । भेजने का खर्चा भी स्वयं किया 1909 में फ्रांस में प्रकट रूप से प्रकाशित की गई।

यूरोप, फ्रांस, आयरलैंड, रूस, जर्मनी, मिश्र और अमेरिका आदि देशों के क्रांतिकारियों ने इस पुस्तक का अच्छा स्वागत किया। इस ग्रंथ का दूसरा संस्करण श्री हरदयाल, Shrimati kama मैडम कामा, चट्टोपाध्याय आदि अभिनव भारत के सदस्यों ने निकालने का निश्चय किया। उस समय Veer Savarkar आदि अपने सैकड़ों साथियों के साथ गिरफ्तार हो चुके थे लाला हरदयाल ने अमेरिका में अपने “गदर” पत्र द्वारा इसका अनुवाद उर्दू पंजाबी तथा हिंदी में क्रमशः प्रकाशित किया, जिससे सैनिकों और सीखो में जो कैलिफोर्निया में थे। बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ा।

1914 ईस्वी में भारतीय सेना में जो विद्रोह करने की तैयारी की जा रही थी उसमें इस ग्रंथ के प्रचार का बड़ा अच्छा कार्य किया इस ग्रंथ की पांडुलिपि मराठी भाषा की देवि कामा के पास पैरिस भेज दी गई वीर सावरकर गिरफ्तार हो चुके थे। देवि कामा ने पांडुलिपि “जेबर बैंक ऑफ पेरिस” मैं सुरक्षित रख दी। किंतु जर्मनी के आक्रमण से तथा श्रीमती कामा की मृत्यु से ना पैरिस बैंक ही रहा ना जेवर की ग्राहक देवी कामा।

बहुत खोज करने पर भी कुछ पता ना चला और वह मराठी साहित्य ग्रंथ नष्ट ही हो गया संभव है इसके कहीं और भी संस्करण निकले हो पता नहीं। 1926 में हुतात्मा वीर सावरकर ने यह ग्रंथ गुप्त रूप से प्रकाशित कराया। जिस पर सावरकर का नाम भी दिया था भारत में कहीं-कहीं भगत सिंह द्वारा प्रकाशित कापियां मिली हैं।

“चलो दिल्ली” का अमर नारा इसी ग्रंथ से लिया गया

1942 में पूज्य वीर नेता सुभाष चंद्र जी ने ज्वालामुखी नाम से इसका प्रथम भाग प्रकाशित किया नेताजी ने ग्रंथ का पूर्ण लाभ उठाया और “चलो दिल्ली” का अमर नारा इसी ग्रंथ से लिया गया। 1946 में प्रांतीय शासन सूत्र कांग्रेसियों ने संभाला तो मुंबई के नव युवकों ने गुप्त रूप से इस ग्रंथ का अंग्रेजी संस्करण उन्हें मुद्रित किया और मंत्रिमंडल को चेतावनी दी कि हम जेल में जाने का जोखिम उठाकर भी इस ग्रंथ का विक्रय करेंगे।

उसी समय मुंबई मंत्रिमंडल ने सावरकर साहित्य की जब्ती रद्द करने की घोषणा की और इस प्रकार 38 वर्षों का अन्याय दूर हो गया। सारा भारत मुंबई मंत्रिमंडल को धन्यवाद देता रहेगा यह ग्रंथ इतना उत्तम है जिसमें भारतीय स्वाधीनतार्थ “अभिनव भारत” से सशस्त्र क्रांति का प्रारंभ किया था तब से नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद सेना की चढ़ाई तक सबको प्रेरणा देने वाला यह अनमोल ग्रंथ क्रांतिकारियों का ग्रंथ साहब बन गया और आगामी क्रांतिकारियों का प्रकाश स्तंभ बना रहेगा।

मैजिनी के चरित्र द्वारा सावरकर भारतीयों को यूरोपीय युद्ध का पाठ पढ़ाना चाहते थे और सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास द्वारा विषम परिस्थितियों में क्रांति करना सिखाना चाहते थे। वह कार्य इन दोनों ग्रंथों ने कर दिखाया। भारत के सभी क्रांतिकारियों ने वीर सावरकर के इन दोनों ग्रंथों से भारत को स्वतंत्र करने तक पूर्ण लाभ उठाया।

1908 में अंग्रेज लोग सन 1857 की क्रांति को जीतने की ख़ुशी में अर्ध शताब्दी उत्सव मना रहे थे। इसका विरोध करने के लिए Veer Savarkar ने इंडिया हाउस में स्वतंत्रता दिवस बड़ी धूमधाम से मनाया प्रतिज्ञा की उपवास रखे गए ब्रिटिश राज्य की राजधानी में ब्रिटिश सत्ता के विरोधी नाना साहब, तात्या टोपे लक्ष्मीबाई और कुंवर सिंह को हुतात्मा के रूप में पूजना Veer Savarkar का असाधारण साहस था।

शहीदों की स्मृति में हजारों पर्चे भारत और इंग्लैंड में वितरित किए गए उस दिन भारतीय विद्यार्थी ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज के कॉलेजों में अपनी छातियों पर अट्ठारह सौ सत्तावन के वीरों की जय के बिल्ले लगाकर गए अंग्रेज प्रोफेसर आपे से बाहर होकर बिल्लो पर टूट पड़े और बोले वे हुत्तात्मा ना थे हत्यारे थे। भारतीय विद्यार्थियों को शमा मांगने के लिए कहा शमा ना मांगने पर वह सब एक साथ कालेजों से बाहर हो गए।

कुछ की छात्रवृत्तियां छीन ली गई और कुछ ने अपनी इच्छा से त्याग दीं कुछ एक के पिताओ ने वापस बुला लिया इस घटना से इंग्लिश वा भारतीय सरकार दोनों ही चिंतित हो गई। इंग्लैंड के पत्रों ने भारतीय विद्यार्थियों के विरुद्ध नियमित आंदोलन आरंभ कर दिया सभी इंग्लिश पत्रों ने इंडिया हाउस अभिनव भारत की गुप्त सभाएं स्वतंत्रता दिवस क्रांतिकारी साहित्य और आतंकवादीता पर लंबे-लंबे लेख लिखकर सावरकर पर खुले रूप में आक्रमण किया।

इन पत्रों की घुर्णात्मक चाल से बचने के लिए सावरकर ने आयरलैंड , सिन फिन, ओर दूसरे क्रांतिकारियों से संबंध स्थापित किया। अमेरिका के गेरिकामेरिकन आदि क्रांतिकारी पत्रों में लेख लिखें यह लेख मुंबई के बिहारी और कोलकाता के युगांतर पत्र में भी छपते थे । संसार के ब्रिटिश विरोधी समग्र राष्ट्रों को एक संख्या में पिरोने के लिए मिश्र चिंतकी और आयरलैंड की क्रांतिकारी संस्थाओं से अपनी संस्था का संबंध जोड़ा।

ब्रिटेन द्वारा भारत के विरुद्ध किए जा रहे मिथ्या प्रचार का खंडन करने के लिए सावरकर ने जर्मन, फ्रेंच, आयरिश, चीनी, और रूसी पत्रों में लेख छपवाए। वीर सावरकर की अभिनव भारत संस्था ने 1906 से 1910 तक अल्पकाल में यूरोप में जो आश्चर्यजनक कार्य किए उसी के कारण यूरोपीय लोगो का ध्यान भारतीय राजनीति की ओर सर्वप्रथम हुआ।

पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा लाला हरदयाल आदि अनेक देशभक्त फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका आदि देशों में पूर्ण उत्साह के साथ कार्य कर रहे थे इन देशभक्तों के घोर परिश्रम का ही यह फल था की 1914 में महा युद्ध में भारतीय स्वाधीनता इतना प्रमुख विषय बना कि जर्मनी के राजा कैंसर ने रेजिडेंट इविल सन की मांगों के उत्तर में जो प्रसिद्ध पत्र लिखा उस में विश्व शांति के लिए भारत को स्वतंत्र करना आवश्यक शर्त रखी गई थी। अभिनव भारत के कार्यों से घबराकर ब्रिटिश सरकार ने इसे कुचलने का निश्चय किया।

इंग्लैंड में स्काटलैंड यार्ड भारतीय विद्यार्थियों का पीछा करने लगा और भारत में साधारण सी आई डी से लेकर गवर्नर तक दमन करने में जुट गए इसके होते हुए भी मैडम कामा की अध्यक्षता में वंदे मातरम पत्र अभिनव भारत द्वारा निकलता रहा और इस द्वारा स्कूल कालेजों यहां तक कि फौजी छावनी में भी प्रचार होता रहा। पंजाबियों विशेषता सीखो में राष्ट्रीय भाव भरने के लिए पंजाब की छावनीयों में गुरुमुखी में लिखे सहस्त्रो पर्चे बांटे गए लंदन में गुरु गोविंद सिंह का जन्म बड़े समारोह से मनाया गया उसमें सावरकर, लाला लाजपत राय, बिपिन चंद्र पाल आदि हिंदू नेताओं ने भाषण दिए उस दिन “खालसा” नाम से एक पर्चा बांटा गया यह जप्त कर लिया गया।

यह भारत के स्कूल कालेजों और विशेष रूप से पंजाब में भेजा गया इसका बड़ा प्रभाव पड़ा Veer Savarkar ने मराठी भाषा में “सिखों का इतिहास” (महाराष्ट्र में सिख इतिहास के प्रचारार्थ) लिखा। यह भारत भेजा जा रहा था सरकार ने मार्ग में ही निकाल लिया सावरकर ने जो भी ग्रंथ लिखा उसी का गला सरकार ने जप्त कर घोट दिया।

1914 में पंजाब में जो क्रांति उत्पन्न की उसमें “अभिनव भारत” द्वारा किए गए आंदोलन का पर्याप्त भाग था। वैसे विशेष पुरुषार्थ लाला हरदयाल जी तथा राज बिहारी और करतार सिंह का था।

भारतवर्ष के इन महान क्रांतिकारियों को भी पढ़ें
योगी राज श्री कृष्ण जी महाराज
satyarth prakash dayanand saraswati in hindi pdf महर्षि स्वामी दयानन्द जी
महारानी लक्ष्मी बाई की वीरता की छोटी से कहानी
प्रोफेसर राममूर्ति की जीवनी कलयुग का भीम Part1
ब्रह्मचारी राम प्रसाद बिस्मिल जी की जीवनी हिंदी की सर्वश्रेष्ठ आत्मकथा
 देशभक्त अशफाक उल्ला खान देशभक्त अशफाक उल्ला खान
बटुकेश्वर दत्त आज़ादी के बाद क्या हुआ इनके साथ
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त का अदालत में दिया ब्यान
sukhdev thapar in hindi भगत सिंह के साथ श्री सुखदेव थापर जी महान क्रन्तिकारी

अभिनव भारत को समाप्त करने के लिए सरकार के दमन नीति की चक्की जोर से चलने लगी गवालियर में अभिनव भारत के दर्जनों सदस्य पकड़े गए उनके पास शस्त्र पाए गए उन्हें लंबी लंबी सजाएं दी गई लोकमान्य तिलक और परांजे भी पकड़े गए। इससे आंदोलन दबने की अपेक्षा भड़क उठा मुंबई और नासिक में भयंकर लूटमार हुई इसके अपराध में बड़े भाई गणेश सावरकर को दंगाइयों का नेता कहकर 6 मार्च का कठोर कारावास दिया गया ब्रिटिश विरोधी आंदोलन ने और भी जोर पकड़ा।

दोस्तों अब हम अगले भाग में Veer Savarkar जी के बड़े भाई वीर गणेश सावरकर जी के बारे में पढेंगे दोस्तों बड़ी मेहनत से लेख लिखा जाता रहा है कृपया करके आप दूसरों के साथ में साझा जरूर कीजिए खासतौर से उन दुष्टों के साथ में साझा जरूर कीजिएगा जो Veer Savarkar के ऊपर उंगलियां उठाते हैं ताकि उनकी उंगलियां वही की वही टूट कर टुकड़े टुकड़े हो जाए वंदेमातरम्

यदि आपने Veer Savarkar लेख का पहला भाग नही पढ़ा है तो यहाँ से पढ़ें

Veer Savarkar भग१

वीर सावरकर के भाई गणेश सावरकर की गिरफ्तारी – भाग 3

यदि आप इस वेबसाइट को आगे बढ़ाने में मेरा सहयोग करना चाहते है और युवक युवतियों को जागरूक करने में मेरा सहयोग करना चाहते है तो आप दान के माध्यम से मेरा सहयोग कर सकते है। दान देने के लिए Donate Now बटन पर क्लिक कीजिये।

Veer Savarkar

Leave a Comment