हरियाणा दिवस हिंदी सत्याग्रह आन्दोलन
उस समय आचार्य भगवान्देव (स्वामी ओमानन्द) के द्वारा दिये गए ‘हरयाणा के वीर की गर्दन टूट तो सकती है, पर झुक नहीं सकती’ इस नारे ने पंजाब सरकार के लिए जलती आग में घी डालने का काम किया था और आर्य सत्याग्रहियों का मनोबल बढाया था।
हरियाणा दिवस की नीव हिन्दी सत्याग्रह और आचार्य भगवान्देव की कर्मठता
1956 की एक बड़ी घटना हिन्दी सत्याग्रह है। अंग्रेजी शासन से मुक्त होकर स्वाधीनता मिलने पर पंजाब के अन्तर्गत आने वाले हरयाणा प्रदेश पर पंजाब सरकार की तरफ से पंजाबी भाषा जबरदस्ती थोंप दी गई।
उस समय हरयाणा अलग स्वतन्त्र राज्य नहीं था। किन्तु हिन्दी बहुल प्रदेश था। पंजाबी यहां कम थी। स्वामी दयानन्द ने भी हिन्दी को ही महत्ता दी है, उन्होंने अपने सभी ग्रन्थ हिन्दी और संस्कृत भाषा में ही लिखे।
उस समय चारों तरफ उर्दू का बोलबाला था। आर्यसमाज की सभी पाठशालाएं उस समय में भी हिन्दी में ही चलती थी। अतः आर्यसमाज की तरफ से पंजाब सरकार के इस हिन्दी विरोधी आदेश का पूरे जोर से विरोध किया गया।
इस भाषा विवाद को सुलझाने के लिए एक फार्मूला बनाया गया था। जो सच्चर फार्मूला के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। इस फार्मूले के अनुसार हिन्दी पढने वाले प्रत्येक बालक को पाचवीं कक्षा से पंजाबी पढने और पंजाबी के छात्र को पांचवीं से हिन्दी पढने की व्यवस्था की गई थी। परन्तु इस पर अमल नहीं हो सका और विचार चलता रहा। फिर पंजाब के तीन रीजनों अर्थात् प्रादेशिक इकाइयों की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए एक रीजनल फार्मूला बनाया गया।
रीजनल फार्मूले के अनुसार जालन्धर डिवीजन में पंजाबी भाषा पहली कक्षा से ही अनिवार्य की गई।
अम्बाला डीवीजन के लिए भी पांचवी से पंजाबी अनिवार्य की गई और पेप्सू डीवीजन जिसके अन्तर्गत जीन्द, नाभापटियाला तथा फरीदकोट आदि पुरानी रियासतें सम्मिलित थी, वहां केवल पंजाबी भाषा को ही शिक्षा का माध्यम बनाया गया। सरकारी नौकरी के लिए मैट्रिक में पंजाबी अनिवार्य कर दी गई। इस प्रकार रीजनल फार्मूला हिन्दी भाषियों के लिए एक बड़ी चुनौती बन कर आया।
हरयाणा वाले भाग पर पंजाबी की अनिवार्यता लादना सरासर अन्याय था।
इस चुनौती का सामना करने के लिए जून 1956 में जालन्धर के साईंदास कालेज में पंजाब भर के आर्यनेताओं की एक बैठक हुई। इस बैठक में स्वामी आत्मानन्द, महात्मा आनन्द स्वामी, जगदेवसिंह सिद्धान्ती, आचार्य रामदेव (स्वामी सत्यमुनि) आदि अनेक आर्यनेता सम्मिलित थे।
अन्तिम बैठक चण्डीगढ में हुई तथा फैसला हुआ कि एक प्रतिनिधि मण्डल सरकार से मिले। यदि सरकार न माने तो आन्दोलन शुरू किया जाये। स्वामी आत्मानन्द की अध्यक्षता में एक शिष्टमण्डल पंजाब के मुख्यमंत्री सरदार प्रतापसिंह कैरों से मिला।
कैरों ने हरयाणा से पंजाबी अनिवार्यता समाप्त करने का आश्वासन दिया। अतः उस समय आन्दोलन की आवश्यकता नहीं हुई किन्तु 1957 में कैरों साहब अपने वायदे से मुकर गये। अतः आन्दोलन की रूपरेखा तैयार कर स्वामी आत्मानन्द जी द्वारा 10 जून 1957 को आन्दोलन प्रारम्भ करने की घोषणा कर दी गई।
हरियाणा में स्वामी ओमानन्द जी को आन्दोलन की बागडोर सोपी गई
हरयाणा में आन्दोलन की बागडोर आचार्य भगवान्देव (स्वामी ओमानन्द) जी को सोंपी गई थी। आचार्य जी ने स्थान-स्थान पर जलसे कर हिन्दी सत्याग्रह को जन-जन तक पहुंचाया।
वैद्य बलवन्तसिंह के साथ मोटर साइकिल पर सवार होकर रात-दिन भाग-दौड़ कर आन्दोलन की वह आंधी हरयाणा में चलाई कि जिससे पंजाब सरकार हिल उठी। जगह-जगह से सत्याग्रही जत्थे चण्डीगढ की ओर चल पड़े। जब सत्याग्रही बहुत बढ़ ज्यादा बढ़ गए तो रोहतक में भी सत्याग्रह केन्द्र खोलना पड़ा था। अनेक आर्यनेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था।
और वारण्ट भी जारी किये गए। ऐसे में सत्याग्रह को चलाना बड़ा कठिन कार्य था। परन्तु आचार्य जी (स्वामी ओमानन्द जी) की रणनीति ने सब सरकारी हथकण्डों को विफल कर दिया। वे भूमिगत रहकर कार्य करते रहे और सत्याग्रही जत्थे भेजते रहे।
गुप्तचर विभाग से सरकार को पता चल चुका था कि इस आन्दोलन का प्राण कौन है। और वह किस प्रकार आन्दोलन को चला रहा है। अतः सरकार ने इनकी गिरफ्तारी के लिए कई इनाम घोषित किए। और तो और जिन्दा या मुर्दा पकड़ने पर भी इनाम थे।
कन्या गुरुकुल नरेला को कुड़क करने के आदेश दिये गए। पैतृक मकान को भी जब्त करने का नोटिस दरवाजे पर चिपकाकर मकान को सील कर दिया गया। पंजाब, दिल्ली, राजस्थान और उत्तरप्रदेश की पुलिस को आचार्य भगवान्देव (स्वामी ओमानन्द जी) की गिरफ्तारी के लिए विशेष सतर्कता बरतने का आदेश दिया गया।
किन्तु जो जन सर्वजन हिताय कार्य करते हैं, उनकी भगवान् भी सहायता करते हैं। आचार्य भगवान्देव को पकड़ने के लिए सरकार ने अनेक हथकण्डे अपनाए,
किन्तु इस पूरे आन्दोलन के दौरान आचार्य भगवान्देव ही अकेले ऐसे सक्रिय कार्यकर्ता थे, जो एक बार भी गिरफ्तार नहीं हुए। अनेक बार वेश बदलकर वे बच निकले। कभी दाढी कटवाकर, कभी साफा बान्धकर, कभी धोती-कुर्ता पहनकर बच निकलते थे। कभी-कभी तो 50 मील तक साइकिल चलानी पड़ती थी। भूखे भी कई-कई दिन रहना पड़ता था। कई-कई रात जागना पड़ता था। किन्तु इन सब बातों की परवाह किये बिना आचार्य भगवान्देव ने आन्दोलन की अग्नि को और अधिक प्रबल किया।
पंजाब सरकार ने इस आन्दोलन को असफल बनाने के लिए हर प्रकार के हथकण्डे अपनाये। सत्याग्रहियों को बुरी तरह पीटना, तपती सड़कों पर घसीटना, नुकीले जूतों से कुचलना, बाल पकड़कर घसीटना, गाड़ी में भरकर घण्टों धूप में तपाना तथा दूर-दूर जंगलों में छोड़ आना, प्यासा रखना यज्ञवेदी पर जूतों सहित चढ कर धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ करना आदि
अमानवीय कृत्य पंजाब पुलिस के लिए आम बात थी। उस समय आचार्य भगवान्देव के द्वारा दिये गए ‘हरयाणा के वीर की गर्दन टूट तो सकती है, पर झुक नहीं सकती’ इस नारे ने पंजाब सरकार के लिए जलती आग में घी डालने का काम किया था और आर्य सत्याग्रहियों का मनोबल बढाया था।
परिणाम स्वरूप प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से 18 सत्याग्रही बलिदान हो गए, लेकिन अपनी गर्दन नहीं झुकाई। और इन सब शहादतों, कष्टों और आचार्य भगवान्देव के तप का ही प्रभाव था कि यह सत्याग्रह सफल हुआ और पंजाब सरकार को झुकना पड़ा।
यही आन्दोलन बाद में अलग हरियाणा के निर्माण में केवल सहायक ही नहीं अपितु आधार भी बना। इस रूप में यह आन्दोलन की बहुत बड़ी उपलब्धि था। इस सत्याग्रह की विजय की खुशी में आचार्य भगवान्देव को लोगों ने सम्मान सहित हाथी पर बैठा कर पूरे रोहतक शहर में जूलुस निकाला था तथा ग्राम नयाबांस में भी भव्य स्वागत गया था।
परन्तु अत्यधिक परिश्रम और भाग दौड़ के कारण आचार्य भगवानदेव का स्वास्थ्य अत्यधिक बिगड़ गया और उन्हें इसके लिए एक मास तक दिल्ली के दीवानचन्द नर्सिंग होम में स्थायी ठहरकर उपचार करवाना पड़ा, और परमात्मा की कृपा से ये पुनः पूर्णतया स्वस्थ हो गए।
निष्कर्ष
ये जानकारी आपको स्वामी ओमानंद सरस्वती जी की जीवनी से दी गई है जल्द ही आपको पुस्तक की पीडीऍफ़ भी उपलब्ध करवाई जाएगी।
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