आर्य भूः ! क्यों दुखी है
१
आर्य भू तव शान्तिजा,’ रमणीयता वह है कहाँ,
क्यों म्लान है तेरा बदन, यह दीनता है कैसी यहाँ?
क्या अग्निवर्षाक धुन्धकर, ज्वालामुखी पर्वत फटा,
जिससे विकृत है आज तेरी,चारुनैसर्गिक छुटा ।
अथवा यहाँ भूकम्प ने, सर्वनाश किया श्रहो,
जिससे दबी तव दिनसंतति, दुःख का कारण कहो।
क्या पड़ा दुष्काल भारी, या प्रलय जल है वहाँ,
या युद्ध का है शोक छाया; प्लेग या पीड़क महा ॥
२
सदय प्रच्छक” ! एक भी है बात इनमें से नहीं,
ज्वालामुखी भूकम्प या, जलपूर भी श्राया नहीं।
दुष्काल प्लेग ज्वर महा-संग्राम भयप्रद है नहीं,
अस्तित्व इनका दुःख इतना, दे कभी सकता नहीं।
नित्य टकराता हुआ जल, गिरि नदी का शुद्ध है,
है तथा सरवारी गन्दला, क्योंकि वह अवरुद्ध है ।
यह बात जन में जाति में, अरु देश में भी सत्य है,
जो अड़ा वह ही सड़ा, सिद्धान्त यह न असत्य है ॥
३
स्वाधीन जीवन के लिये, चिर शान्ति मानो काल है,
वह देह, मन, मस्तिष्क की, सब बन्द करती चाल है।
न स्थान है संसार में, सालस्य सुप्तों का कहीं,
जो जब जगत् में सजग हो, लड़ जीतता जीता वहीं ।
हाय जो तुम देखते हो, आज यह दुःखित दशा,
उसका अ्रखिल कारण यही अब, मैं बनी हूँ परवशा ।
मम बालकों के पेर में, है दासता बेडी पड़ी,
हाथ में उनके जड़ी, ।निःशंकता की हथकड़ो ॥
४
रो नहीं सकते बिचारे, बोलना श्रपराध है,
. मेरे यहाँ पर जन्म लेना, आज पाप अगाध है।
गर्भ से हो दैन्य के संस्कार जिनको घेरते
देखें नहीं वे पुत्र माता, के दिनों को फेरते।
परदेश के सब द्वार उनके, हेतु बिल्कुल बन्द हैं,
जा सकगे तो कुली बन, भाग्य उनके मन्द हैं।
भाग्य को यह म्लानता ही, मन्द सुझमुझ को कर रही,
परवश्यता नैराश्यता में, है मुझे ले जा रही ।
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